गुरुवार, 22 मार्च 2018

कला के बारे में।

मेरी कला के बारे में थोड़ीं सी जानकारी :
















रविवार, 26 जनवरी 2014

कला तो चिरंजीवी होती है .

डॉ.लाल रत्नाकर की रचना को कोलेक्त्रेटगाजियाबाद में लगाया गया !

शुक्रवार, 21 जून 2013

अभिव्यक्ति

अभी एक साक्षात्कार में
जो देखा वह कुछ इस तरह है
एक कैंडिडेट जिसे सबसे पहले बुलाया गया
उसके हाथ में एक खुबसूरत सी फ़ाइल है
जिस फ़ाइल में उसने 'अखबारों' की
कतरनें इकट्ठा की हुयी हैं
इनमे उसका अपना कुछ नहीं है,
इसमें हैं रजा, सुजा, हुसेन और कई नामी
कलाकारों के नाम और उनके काम
इससे तुम्हारी कला का आभास कैसे हो
मेरा तो यही शौक है !

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

जब मैं छोटा था,

उदय वीर सिंह यादव 
जयपुर, राजस्थान 

जब मैं छोटा था,
शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता,
... क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...!!

जब मैं छोटा था, शायद शामें बहुत
लम्बी हुआ करती थीं.. मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस", वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है.
अब शायद वक्त सिमट रहा है..!!

जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना, वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं "Hi" हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, जन्मदिन, नए साल पर बस SMS आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..!!

जब मैं छोटा था,तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग, पोषम पा, कट केक,
टिप्पी टीपी टाप. अब internet, office,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है...!!

जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो उस कबरिस्तान के बाहर बोर्ड पर लिखा था ...
"मंजिल तो यही थी,बस जिंदगी गुज़र
गयी मेरी यहाँ आते आते"

ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..

तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं..
कुछ रफ़्तार धीमी करो, मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो खूब जियो मेरे दोस्त...!! 

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

शनिवार, 8 जनवरी 2011

सैयद हैदर रजा भारत वापस लौट आये हैं .


अमर उजाला से साभार -

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं
अशोक वाजपेयी
Story Update : Saturday, January 08, 2011    7:42 PM
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सैयद हैदर रजा वापस भारत आ गए हैं। भारत जिसे कभी उन्होंने भुलाया ही नहीं था। या जहां से वे कभी गए ही नहीं थे। वे बार-बार लौटकर यहां आते थे। वे बार बार यहां आकर बसने की बात भी करते रहे हैं। अंततः अठारह दिसंबर को उन्होंने जब अपने दोस्तों को अलविदा कहने के लिए रू द शरोन्न के अपने आवास पर पार्टी दी तो सुनिश्चित हो गया कि अब फ्रांस को छोड़कर भारत आने का वक्त हो गया है। ‘ऊधौ मोहिं ब्रज विसरत नाहीं’ का यह भाव कोई नास्टैल्जिया नहीं है, क्योंकि वे हर बरस यहां दो तीन महीने के लिए आते रहे हैं। इसलिए मुझे लगता है कि उनका यहां आना किसी नॉस्टैल्जिया की पुकार नहीं बल्कि अपना अंतिम समय अपने देश में बिताने की आकांक्षा का पूरा होना है।

यहां के जंगल, पहाड़, खेत उन्हें शुरू से ही प्रिय रहे हैं, लेकिन यह शस्य श्यामलाम सुजलाम सुफलाम धरा ही उनके आकर्षण की वजह नहीं है। यहां के कलाजगत से भी उनका गहरा जुड़ाव रहा है। उन्होंने दस साल पहले ही रजा फाउंडेशन स्थापित किया था और युवा प्रतिभाओं को पुरस्कृत और सम्मानित करने की पहल की थी जो किसी और कलाकार ने नहीं की। स्पष्ट है कि यहां के युवा कलाकारों के प्रति उनका अनुराग बहुत गहरा और पुराना है। एक और बात है जो उन्हें आकर्षित करती है। उनके हिसाब से इस समय जैसी सक्रियता भारतीय कला दृश्य पर है, वैसी बहुत कम देशों में है। यहां की प्रकृति, पहाड़ और जंगल तो उन्हें आकर्षित करते ही रहे हैं। वे योजना बना रहे हैं कि ठंड थोड़ी कम हो जाए तो अपने पुराने अंचल में जाएंगे। मंडला, दमोह के अपने इलाके में भ्रमण करेंगे।

एक सवाल है कि अभी तक तो रजा अपने स्मृति के देश में रहते रहे हैं। अब यथार्थ के देश में रहकर उनके सृजन में क्या बदलाव आने की संभावना है? मुझे लगता है कि इस उम्र में आकर परिवर्तन होना थोड़ा कठिन है। दूसरी बात यह कि कभी भी यथार्थ स्मृति से विच्छिन्न तो होता नहीं है। हम जिस देश में रहते हैं वह आधी स्मृति आधा यथार्थ होता है। उसमें कोई बुनियादी फर्क तो आता नहीं है। उनके मन में जो भारत है, वह यहां है कि नहीं है, कितना है, यह तो वक्त ही बताएगा। अभी से कुछ कहना मुश्किल है, अभी तो उन्हें आए हुए हफ्ता ही हुआ है। उनको यह भी अंदाजा होगा कि यथार्थ शायद उससे अलग हो, जैसा उन्होंने सोच रखा है। हालांकि खुद रजा भी इस बात को लेकर कुछ बेचैन हैं। क्योंकि एक लंबा अरसा उन्होंने जिस तरह की जीवन शैली में गुजारा है, वैसे में एक नए माहौल में इस उम्र में खुद को व्यवस्थित कर पाना कितना संभव होगा, यह तो समय ही बताएगा।

यहां के कला जगत में उनकी उपस्थिति हमेशा ही बहुत प्रेरक और निजी उपस्थिति रही है। लोग उनसे उत्साह और प्रेरणा पाते रहे हैं। अब उनके यहां स्थायी रूप से आ जाने पर लोगों की प्रसन्नता स्वाभाविक ही है। अब रजा यहां आ गए हैं, तो हम सब की कामना है कि हमारे समय के एक और महान चित्रकार हुसैन की भी स्वदेश वापसी हो। रजा भी यही चाहते हैं। रजा जब फ्रांस में थे तो हमारा भी उस देश से अलग ही नाता जुड़ा हुआ था। साल में दो बार वे मुझे फ्रांस बुलाते थे, एक बार सर्दियों में तो दूसरी बार गर्मियों में। इस बार भी जब उन्होंने 18 दिसंबर को अपने दोस्तों को अलविदा कहने के लिए पार्टी दी, तो मैं भी वहां मौजूद था। यह रजा साहब के व्यक्तित्व का चुंबक ही था कि उस कड़ाके की ठंड में भी पचास से भी अधिक उनके मित्र चाहने वाले वहां जुटे। इनमें वहां भारत के राजदूत राजन मथाई भी थे। हों क्यों नहीं! रजा भी तो इतने लंबे समय से वहां पर भारत के कला-दूत की भूमिका निभाते रहे हैं। अब यहां आकर वे शायद फ्रांस के अपने अनुभवों को चित्रबद्ध कर सकेंगे। अगर ऐसा हुआ तो हम इस कला मनीषी के एक और कला अनुभव से रूबरू हो सकेंगे।

रजा का समय
मैं उठाता हूं नाम
मध्यप्रदेश केवन भूगोल से
ककैया, बाबरिया, बचई, मंडला, दमोह, नरसिंहपुर
और वे तुम्हारे आकाश में
ओस भीगी वनस्पतियों से
झिलमिलाते-जगमगाते हैं-
जैसे तुम्हारी आदिम आत्मा की वर्णमाला के कुछ आलोकित अक्षर हों
मुझे सुनाई नहीं देती
बचपन के जंगल से घर की दरार में दाखिल होती सांप की सरसराहट
या बरामदे में सरकता बिच्छू का डंक
लेकिन प्रार्थनाओं की तरह छा जाते हैं
देहाती स्कूल केबरामदे में रटे जा रहे पहाड़े
या एक दुबली सी हिंदी पाठ्यपुस्तक से
दुहराए जा रहे
तुलसी कबीर रहीम के भक्तिपद्य।
जंगल में रहते हैं साथ भय और सुंदरता
घर केआत्मीय अंधेरों में जब-तब कौंध जाते जुगनू।
जंगल में फैली धुंध या कि
पत्तियों के जलने से फैल गया धुआं,
जिसमें से एक फारेस्टगार्ड के साथ
तुम जा रहे हो मंडला में महात्मा गांधी को देखने
एक जनसभा को संबोधित करते हुए-
और बरसों बाद जैसे वही छबि रोकती है
तुम्हें अपने दूसरे भाइयों
और पहली पत्नी की तरह
बंटवारे के बाद उस तरफ जाने से।
तुम्हारे सख्त और ईमानदार पिता
सिखाते हैं तुम्हें पांच वक्त की नमाज की महिमा,
और बगल के हनुमान मंदिर में तुम सुनते हो रामचरित मानस का पाठ-
पैरिस के चर्च में तुम झुकते हो प्रार्थना मेंः
कौन जानता था, शायद तुम भी नहीं,
कि एक दिन रंग और आकार तुम्हारी प्रार्थना के मौन शब्द होंगे,
कि जंगल में चहचहाती चिड़ियां, जब-तब गांव वालों को भयाक्रांत करने के लिए तेंदुए की हुंकार
और अंधेरी रात में आती नदी में चढ़ती बाढ़ के पानी की आवाज
सब मिलाकर एक प्रार्थना थीं
कि तुम्हें रचने का
खोजने और पाने का,
जहां भी रहो
वहां दूसरों के काम आने का वरदान मिले।

ये जो रजा हैं...
22 फरवरी 1922 को मध्यप्रदेश के मंडला जिले के बाबरिया में जन्मे सैयद हैदर रजा अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कलाकार हैं। उनकी कृतियां करोड़ों में बिकती हैं। गत जून में क्रिस्टीज की नीलामी में उनकी एक पेंटिंग ‘सौराष्ट्र’ 16.42 करोड़ में बिकी। स्कूली शिक्षा दमोह के गवर्नमेंट हाई स्कूल से पूरी करने के बाद उन्होंने नागपुर स्कूल ऑफ आर्ट, नागपुर और जे जे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से कला शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद 1950 में वे फ्रांस चले गए और उसी देश को अपनी कर्मस्थली बना लिया। मुंबई में उन्होंने प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप की स्थापना भी की थी। उनकी कृतियों में भारतीय संस्कृति का खासा प्रभाव है।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

आज फिर याद करना होगा


by Aflatoon Afloo on 02 अक्टूबर 2010 को 12:18 बजे

गांधी जी के सचिव प्यारेलाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पूर्णाहुति में सितम्बर , १९४७ में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात , विभाजन के बाद हुए दंगों में तथा गांधी – हत्या में संघ की भूमिका का विस्तार से वर्णन किया है । गोलवलकर से गांधी जी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे – ‘ संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है । उन्होंने अनुशासन , साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है ।’ गांधी जी ने उत्तर दिया – ‘ परन्तु यह न भूलिये कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था ।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘ तानाशाही दृष्टिकोण रखनेवाली सांप्रदायिक संस्था बताया । ( पूर्णाहुति , चतुर्थ खंड, पृष्ठ : १७)

अपने एक सम्मेलन में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता ने उन्हें ‘ हिन्दू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष ‘ बताया । उत्तर में गांधी जी बोले - ‘मुझे हिन्दू होने का गर्व अवश्य है । परन्तु मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी है । हिन्दू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है , यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है । यदि हिन्दू यह मानते हों कि भारत में अहिन्दुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा… तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू धर्म श्रीहीन हो जायेगा.. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा ।’

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधी जी से पूछा गया – ‘ क्या हिन्दू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता ? यदि नहीं देता , तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है , उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है ?’

गांधी जी ने कहा – ‘ पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है । मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है ?दूसरे शब्दों में , हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जायें । एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने अथवा फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है ? रही बात दूसरे प्रश्न की । यह मान भी लिया जाये कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है , तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है । अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जायें , तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जायेंगे…. उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए , कानून को अपने हाथों में ले कर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए ।( संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड : ८९ )

३० नवंबर ‘४७ के प्रार्थना प्रवचन में गांधी जी ने कहा , ‘ हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिन्दुत्व की रक्षा का एक मात्र तरीका उनका ही है । हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से । हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं । उनमें पढ़े – लिखे लोग भी हैं । मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता…

‘.. कनॉट प्लेस के पास एक मस्जिद में हनुमान जी बिराजते हैं , मेरे लिए वह मात्र एक पत्थर का टुकड़ा है जिसकी आकृति हनुमान जी की तरह है और उस पर सिन्दूर लगा दिया गया है । वे पूजा के लायक नहीं ।पूजा के लिए उनकी प्राण प्रतिष्ठा होनी चाहिए , उन्हें हक से बैठना चाहिए । ऐसे जहां तहां मूर्ति रखना धर्म का अपमान करना है ।उससे मूर्ति भी बिगड़ती है और मस्जिद भी । मस्जिदों की रक्षा के लिए पुलिस का पहरा क्यों होना चाहिये ? सरकार को पुलिस का पहरा क्यों रखना पड़े ? हम उन्हें कह दें कि हम अपनी मूर्तियां खुद उठा लेंगे , मस्जिदों की मरम्मत कर देंगे । हम हिन्दू मूर्तिपूजक हो कर , अपनी मूर्तियों का अपमान करते हैं और अपना धर्म बिगाड़ते हैं ।

‘ इसलिए हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे जो भी मुझे सुनना चाहते हैं और सिखों को बहुत अदब से कहना चाहूंगा कि सिख अगर गुरु नानक के दिन से सचमुच साफ हो गये , तो हिन्दू अपने आप सफ हो जायेंगे । हम बिगड़ते ही न जायें , हिंदू धर्म को धूल में न मिलायें । अपने धर्म को और देश को हम आज मटियामेट कर रहे हैं । ईश्वर हमें इससे बचा ले ‘। ( प्रार्थना प्रवचन ,खंड २ , पृ. १४४ – १५० तथा संपूर्ण गांधी वांग्मय , खंड : ९० )

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन ( १८ नवंबर ‘४७ ) में उन्होंने कहा , ‘ मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें । वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी । परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है । इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा … काफी देखने के बाद मैं यह महसूस करता हूं कि यद्यपि हम सब तो पागल नहीं हो गये हैं , फिर कांग्रेसजनों की काफी बडी संख्या अपना दिमाग खो बैठी है..मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे , तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे… मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है , गांधी ? वह जैसा चाहे बकता रहे ! यह तो गया बीता हो गया है । जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है । रही बात सरदार पटेल की , सो उसमें कुछ है । वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है ।परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है ! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा , हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी , न सिख धर्म की । गुरु ग्रन्थ-साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गयी है । ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता । इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं । मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है । हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती । आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी । वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आयेगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा , जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जायेगा । मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आयेगा । हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है । ‘

संयुक्त राष्ट्रसंघ के समक्ष तत्कालीन हिंदुस्तानी प्रतिनिधिमण्डल की नेता श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित की आवाज में आवाज मिलाकर जब पाकिस्तानी प्रतिनिधिमण्डल के नेता विदेश मन्त्री जफ़रुल्ला खां , अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत एम. ए. एच. इरफ़ानी ने भी दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों पर अत्याचार का विरोध किया , तब गांधीजी अत्यन्र्त प्रसन्न हुए और १६ नवंबर ‘४७ को प्रार्थना में उन्होंने यह कहा , ‘ हिंदुस्तान(अविभाजित) के हिंदू और मुसलमान विदेशों में रहने वाले हिंदुस्तानियों के सवालों पर दो राय नहीं हैं , इससे साबित होता है कि दो राष्ट्रों का उसूल गलत है ।इससे आप लोगों को मेरे कहने से जो सबक सीखना चाहिए , वह यह है कि दुनिया में प्रेम सबसे ऊंची चीज है ।अगर हिंदुस्तान के बाहर हिंदू और मुसलमान एक आवाज से बोल सकते हैं , तो यहां भी वे जरूर ऐसा कर सकते हैं , शर्त यह है कि उनके दिलों में प्रेम हो … अगर आज हम ऐसा कर सके और बाहर की तरह हिंदुस्तान में भी एक आवाज से बोल सके , तो हम आज की मुसीबतों से पार हो जायेंगे! ( संपूर्ण गांधी वांग्मय , खण्ड : ९० )

विस्फोट के संस्थापक संजय तिवारी ने ’अयोध्या के राम’ की बाबत सर्वोदय कार्यकर्ता नारायण देसाई से एक साक्षात्कार में यह सवाल पूछा था :

सवाल- मोरारी बापू ने भी तीन किश्तों में गांधी कथा कही है और यह बताने की कोशिश की है गांधी के राम और अयोध्या के राम दोनों एक ही हैं. आप क्या कहेंगे? जवाब- मैंने उनकी दांडी की वह कथा सुनी है जो गांधी पर उनकी पहली कथा है. वे जो कहना चाहते हैं वे कह रहे हैं लेकिन मेरा स्पष्ट मत है कि गांधी के राम और अयोध्या के राम एक ही नहीं है. गांधी जी ने खुद कहा था कि मेरा राम दशरथ का पुत्र राम नहीं है. वे कहा करते थे उनका राम वह तत्व है तो अल्ला में भी है, भगवान में भी है और ईसा मसीह में भी है. इसलिए मैं ऐसा बिल्कुल नहीं मानता हूं. एक बात मैं और बता दूं कि जब गांधी के बारे में मैं ऐसा कह रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे रामचरित मानस को मान नहीं देते थे. आश्रम में नियमित रामचरित मानस का पाठ होता था. फिर भी वे जिस राम के सहारे थे वह अयोध्या के राम नहीं थे.

जस्टिस सुधर अग्रवाल ने अपने फैसले में कहा है ,

’वर्ष १५२८ में जब बाबरी मस्जिद बनी तब अयोध्या या और कहीं भी ऐसी मान्यता नहीं थी कि जहां बाबरी मस्जिद बनाई गई थी, वहां राम जन्मभूमि थी। वर्ष १५५८ में लिखी रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी इसका कोई जिक्र नहीं किया है । वाल्मीकी रामायण सहित किसी अन्य भाषाओं की रामायण में भी राम जन्म भूमि का उल्लेख नहीं मिलता है । राम जन्म भूमि का विचार पहली बार ईस्ट इंदिया कंपनी के एक एजेंट ने १८५५ में सामने रखा ।’

राम का नाम लेते हुए गोली खाने वाले गांधी की भावना और आचरण गोस्वामी तुलसीदास की इन पंक्तियों से प्रतिपादित होता है :

परहित सरिस धरम नहि भाई , परपीड़ा सम नहि अधमाई

चूंकि ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट की शातिरी के पहले अयोध्या में यदि कोई विवाद था तो उसका समाधान भी था इसलिए तुलसीदास को , ’मांग के खईबो ,मसीद में सोईबो’ में दिक्कत नहीं थी।



रंगा द्वारा बनाया गया प्रसिद्ध रेखाचित्र