अमर उजाला से साभार -
ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं | |
अशोक वाजपेयी | |
Story Update : Saturday, January 08, 2011 7:42 PM | |
सैयद हैदर रजा वापस भारत आ गए हैं। भारत जिसे कभी उन्होंने भुलाया ही नहीं था। या जहां से वे कभी गए ही नहीं थे। वे बार-बार लौटकर यहां आते थे। वे बार बार यहां आकर बसने की बात भी करते रहे हैं। अंततः अठारह दिसंबर को उन्होंने जब अपने दोस्तों को अलविदा कहने के लिए रू द शरोन्न के अपने आवास पर पार्टी दी तो सुनिश्चित हो गया कि अब फ्रांस को छोड़कर भारत आने का वक्त हो गया है। ‘ऊधौ मोहिं ब्रज विसरत नाहीं’ का यह भाव कोई नास्टैल्जिया नहीं है, क्योंकि वे हर बरस यहां दो तीन महीने के लिए आते रहे हैं। इसलिए मुझे लगता है कि उनका यहां आना किसी नॉस्टैल्जिया की पुकार नहीं बल्कि अपना अंतिम समय अपने देश में बिताने की आकांक्षा का पूरा होना है। यहां के जंगल, पहाड़, खेत उन्हें शुरू से ही प्रिय रहे हैं, लेकिन यह शस्य श्यामलाम सुजलाम सुफलाम धरा ही उनके आकर्षण की वजह नहीं है। यहां के कलाजगत से भी उनका गहरा जुड़ाव रहा है। उन्होंने दस साल पहले ही रजा फाउंडेशन स्थापित किया था और युवा प्रतिभाओं को पुरस्कृत और सम्मानित करने की पहल की थी जो किसी और कलाकार ने नहीं की। स्पष्ट है कि यहां के युवा कलाकारों के प्रति उनका अनुराग बहुत गहरा और पुराना है। एक और बात है जो उन्हें आकर्षित करती है। उनके हिसाब से इस समय जैसी सक्रियता भारतीय कला दृश्य पर है, वैसी बहुत कम देशों में है। यहां की प्रकृति, पहाड़ और जंगल तो उन्हें आकर्षित करते ही रहे हैं। वे योजना बना रहे हैं कि ठंड थोड़ी कम हो जाए तो अपने पुराने अंचल में जाएंगे। मंडला, दमोह के अपने इलाके में भ्रमण करेंगे। एक सवाल है कि अभी तक तो रजा अपने स्मृति के देश में रहते रहे हैं। अब यथार्थ के देश में रहकर उनके सृजन में क्या बदलाव आने की संभावना है? मुझे लगता है कि इस उम्र में आकर परिवर्तन होना थोड़ा कठिन है। दूसरी बात यह कि कभी भी यथार्थ स्मृति से विच्छिन्न तो होता नहीं है। हम जिस देश में रहते हैं वह आधी स्मृति आधा यथार्थ होता है। उसमें कोई बुनियादी फर्क तो आता नहीं है। उनके मन में जो भारत है, वह यहां है कि नहीं है, कितना है, यह तो वक्त ही बताएगा। अभी से कुछ कहना मुश्किल है, अभी तो उन्हें आए हुए हफ्ता ही हुआ है। उनको यह भी अंदाजा होगा कि यथार्थ शायद उससे अलग हो, जैसा उन्होंने सोच रखा है। हालांकि खुद रजा भी इस बात को लेकर कुछ बेचैन हैं। क्योंकि एक लंबा अरसा उन्होंने जिस तरह की जीवन शैली में गुजारा है, वैसे में एक नए माहौल में इस उम्र में खुद को व्यवस्थित कर पाना कितना संभव होगा, यह तो समय ही बताएगा। यहां के कला जगत में उनकी उपस्थिति हमेशा ही बहुत प्रेरक और निजी उपस्थिति रही है। लोग उनसे उत्साह और प्रेरणा पाते रहे हैं। अब उनके यहां स्थायी रूप से आ जाने पर लोगों की प्रसन्नता स्वाभाविक ही है। अब रजा यहां आ गए हैं, तो हम सब की कामना है कि हमारे समय के एक और महान चित्रकार हुसैन की भी स्वदेश वापसी हो। रजा भी यही चाहते हैं। रजा जब फ्रांस में थे तो हमारा भी उस देश से अलग ही नाता जुड़ा हुआ था। साल में दो बार वे मुझे फ्रांस बुलाते थे, एक बार सर्दियों में तो दूसरी बार गर्मियों में। इस बार भी जब उन्होंने 18 दिसंबर को अपने दोस्तों को अलविदा कहने के लिए पार्टी दी, तो मैं भी वहां मौजूद था। यह रजा साहब के व्यक्तित्व का चुंबक ही था कि उस कड़ाके की ठंड में भी पचास से भी अधिक उनके मित्र चाहने वाले वहां जुटे। इनमें वहां भारत के राजदूत राजन मथाई भी थे। हों क्यों नहीं! रजा भी तो इतने लंबे समय से वहां पर भारत के कला-दूत की भूमिका निभाते रहे हैं। अब यहां आकर वे शायद फ्रांस के अपने अनुभवों को चित्रबद्ध कर सकेंगे। अगर ऐसा हुआ तो हम इस कला मनीषी के एक और कला अनुभव से रूबरू हो सकेंगे। रजा का समय मैं उठाता हूं नाम मध्यप्रदेश केवन भूगोल से ककैया, बाबरिया, बचई, मंडला, दमोह, नरसिंहपुर और वे तुम्हारे आकाश में ओस भीगी वनस्पतियों से झिलमिलाते-जगमगाते हैं- जैसे तुम्हारी आदिम आत्मा की वर्णमाला के कुछ आलोकित अक्षर हों मुझे सुनाई नहीं देती बचपन के जंगल से घर की दरार में दाखिल होती सांप की सरसराहट या बरामदे में सरकता बिच्छू का डंक लेकिन प्रार्थनाओं की तरह छा जाते हैं देहाती स्कूल केबरामदे में रटे जा रहे पहाड़े या एक दुबली सी हिंदी पाठ्यपुस्तक से दुहराए जा रहे तुलसी कबीर रहीम के भक्तिपद्य। जंगल में रहते हैं साथ भय और सुंदरता घर केआत्मीय अंधेरों में जब-तब कौंध जाते जुगनू। जंगल में फैली धुंध या कि पत्तियों के जलने से फैल गया धुआं, जिसमें से एक फारेस्टगार्ड के साथ तुम जा रहे हो मंडला में महात्मा गांधी को देखने एक जनसभा को संबोधित करते हुए- और बरसों बाद जैसे वही छबि रोकती है तुम्हें अपने दूसरे भाइयों और पहली पत्नी की तरह बंटवारे के बाद उस तरफ जाने से। तुम्हारे सख्त और ईमानदार पिता सिखाते हैं तुम्हें पांच वक्त की नमाज की महिमा, और बगल के हनुमान मंदिर में तुम सुनते हो रामचरित मानस का पाठ- पैरिस के चर्च में तुम झुकते हो प्रार्थना मेंः कौन जानता था, शायद तुम भी नहीं, कि एक दिन रंग और आकार तुम्हारी प्रार्थना के मौन शब्द होंगे, कि जंगल में चहचहाती चिड़ियां, जब-तब गांव वालों को भयाक्रांत करने के लिए तेंदुए की हुंकार और अंधेरी रात में आती नदी में चढ़ती बाढ़ के पानी की आवाज सब मिलाकर एक प्रार्थना थीं कि तुम्हें रचने का खोजने और पाने का, जहां भी रहो वहां दूसरों के काम आने का वरदान मिले। ये जो रजा हैं... 22 फरवरी 1922 को मध्यप्रदेश के मंडला जिले के बाबरिया में जन्मे सैयद हैदर रजा अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कलाकार हैं। उनकी कृतियां करोड़ों में बिकती हैं। गत जून में क्रिस्टीज की नीलामी में उनकी एक पेंटिंग ‘सौराष्ट्र’ 16.42 करोड़ में बिकी। स्कूली शिक्षा दमोह के गवर्नमेंट हाई स्कूल से पूरी करने के बाद उन्होंने नागपुर स्कूल ऑफ आर्ट, नागपुर और जे जे स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से कला शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद 1950 में वे फ्रांस चले गए और उसी देश को अपनी कर्मस्थली बना लिया। मुंबई में उन्होंने प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप की स्थापना भी की थी। उनकी कृतियों में भारतीय संस्कृति का खासा प्रभाव है। |
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