सोमवार, 2 अगस्त 2010

हुसैन

हुसैन प्रसंग : प्रभु जोशी

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मध्यप्रदेश से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका, जो कभी की अपने अवसान को प्राप्त कर चुकी है, ने जब पहली दफा चित्रकार हुसैन के कुछेक रेखांकनों और चित्रों को लेकर प्रमाद शुरू किया था, तब कदाचित् पूरे देश में इंदौरी चित्रकारों की ‘हलातोल’ ही एकमात्र ऐसी पहली संस्था थी, जिसने नगर के स्थानीय बुद्धिजीवियों और लेखकों का आह्वान करके, गांधी-प्रतिमा के सामने, एक वृहद् मानव-श्रृंखला बनाकर, उस कुत्सित चेष्टा के विरुद्ध तीखा विरोध प्रकट किया था. मुझे याद है, दूसरे दिन राजनीतिक-संरक्षण प्राप्त ‘कलाहीनों’ के एक निरंकुश गिरोह ने, हुसैन के सहपाठी रहे, वरिष्ठ चित्रकार विष्णु चिंचालकर के पुतले का ‘दहन’ इसलिए किया था क्योंकि उन्होंने हमारे साथ उस ‘प्रदर्शन’ में शिरकत की थी. इस घटना के ठीक एक हफ्ते बाद, विवाद को विकराल बनाने के लिए ‘सुनियोजित’ रूप से अहमदाबाद की ‘हुसैन-दोषी गुफा’ में तोड़फोड़ की गयी, तब मैंने ‘जनसत्ता’ के पृष्ठों पर एक लम्बी टिप्पणी लिखी थी, ‘राजनीति की रतौंध और कला का सच’, जो हुसैन के लिए किसी भी किस्म की डबडबाती भाषा में जुटाई जाने वाली ‘आरोपित सहानुभूति और सांत्वना’ के बजाय, सीधे-सीधे कला में ‘अभिव्यक्ति की जटिलता’ को समझने-समझाने की एक विनम्र कोशिश ही थी.

अब, जबकि एक इस्लामिक राष्ट्र कतर की सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘नागरिकता’ स्वीकारने पर, हुसैन, फिर से अपनी कृतियों से ज्यादा स्वयं बहस के केन्द्र में आ गये हैं, तो, मैं अपनी तरफ से बहैसियत एक छोटे-मोटे चित्रकार के, कुछ बातें रखना चाहता हूँ, जो शायद समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं में जारी बहस में एक विनम्र ‘अंशदान’ का निमित्त बन सके.

बहरहाल बात सबसे पहले इसी सिरे से शुरू की जाये कि ‘कला’ में, जब भी ‘अभिव्यक्ति’ को लेकर कोई बात उठती है, तो उसमें ‘नैतिक-अनैतिक’, ‘श्लील-

अश्लील’ जैसे शब्द उस तरह ‘प्रश्नबिद्ध’ नहीं होते, जैसे कि वे अमूनन, ‘सामाजिकता’ को लेकर चलने वाली, लम्बी और हमेशा ही लगभग अधूरी रह जाने वाली बहसों में होते हैं. कहना न होगा कि अक्सर ही वहाँ, ‘भाषा का बघनखा’ पहनकर ‘विचार’ का ही ‘काम तमाम’ कर देने वाला क्रोध अपना वर्चस्व बनाये रखता है. सारे तर्क अंततः कुतर्कों की वर्दियों में आते हैं और विचार का वह कुरुक्षेत्र, निष्कृष्ट घातों-प्रतिघातों का साक्षी बन जाता है. इसमें ‘कला’ नहीं, ‘कलाकार’ ही कहीं ज्यादा आहत और उद्विग्न हो जाता है.

मेरे विचार से, कला का ‘मूल-स्वभाव’ ही यही रहा आया है कि वह ‘ठेस’ पहुँचाती है, खासतौर पर उनको, जो स्वयं को समाज की ‘दशा-दिशा का नियन्ता’ मानते हैं. अलबत्ता, यह कहना ज्यादा उचित होगा कि ‘ऐसों’ को तो वह ‘ठेस’ पहुँचाये बगैर अपना काम ही शुरू नहीं करती. इसलिए, वह अमूनन ‘असौम्य आपदाओं’ से लगभग चैतरफा घिरी रहती है. उसकी ‘आपदाओं में अभिवृद्धि’ तब और हो जाती है, जब वह ‘सामाजिक नैतिकता’ के पूर्व निर्धारित दायरे में दाखिल होती है, जहाँ ‘निषेधों’ से उसका ‘नेठूई’ सीधा सामना होता है.

कहने की जरूरत नहीं कि ‘कला’ अपने उत्तरोत्तर ‘उन्नयन’ या विकास के लिए, ‘स्वतंत्रता’ की जिस ‘दुर्दमनीय इच्छा’ पर आरूढ़ रही आयी है, उसी स्वतंत्रता ने उसे एक स्वयंभू ‘सत्ता’ के रूप में खड़ा कर दिया है. सभी तरह की ‘सत्ताओं’ के ‘समकक्ष’, ‘समान्तर’ और अधिकांशतः उन सबके ‘खिलाफ’ भी. इसकी प्रमुख वजह यह रही है कि वह हमेशा ही निर्भीकता के साथ जाती रही है, सम्पूर्ण संसार की ‘खातिर’ सम्पूर्ण संसार के ‘विरुद्ध’. इसलिए, उसकी इस प्रकृति के कारण उसकी मारक मुठभेड़ें तो होनी ही हैं और खासतौर पर वहाँ बहुत ज्यादा, जहाँ ‘निषेध’ अधिक कड़े और क्रूर रहे हैं. ‘निषेघों’ को तोड़ने और उनको फलाँगने की ‘अन्तर्निहित-वृत्ति’ ने ही ‘कला’ को हमेशा कई-कई तरह के ‘अभियोगों’ के सामने ले जाकर खड़ा किया है. उस पर ‘परम्परागत’ और ‘स्थापित’ मूल्यों के अतिक्रमण करने के आरोप लगे तथा बेलिहाज होकर उसकी निर्मम और निर्लज्ज निंदाएँ की गयीं. उसे कटघरे में खड़ा कर के जवाब तलब किये गये हैं. लेकिन, ‘कला’ की आत्मा में उतरे हुए लोग यह सच बखूबी जानते हैं कि किसी भी ‘कृति’ का ‘अनिंद्य रहना’ उसकी मृत्यु के भी दिन गिना देता है. शायद, इस सच्चाई को हुसैन ने अच्छी तरह जान लिया था, इसलिए उन्होंने अपने ‘रचे हुए’ को अनालोच्य रहकर जीना सिखाया ही नहीं. उनके लिए निर्विवाद होना, निष्प्राण रहने का पर्याय हो गया.

याद करें तो पायेंगे कि जब वे कलाकारों के ‘प्रोग्रिसिव आर्टिस्ट’ ग्रुप के सदस्य बने तभी से एक किस्म के ‘विवादजीवी’ चित्रकार बन गये. इसके लिए उन्होंने सिर्फ एक ही काम किया है, वह यह कि ‘जो है’, ‘जैसा है’, उससे ‘भिन्न’ और कभी-कभी अप्रत्याशित रूप से ‘एकदम’ उलट कर देना. यह बात शनैः शनैः उनकी ‘कलादृष्टि’ भी बनी और ‘जीवनदृष्टि भी’. यही वजह रही है कि विवाद में निरन्तर उनकी कृतियाँ घिरती रहीं और उनके वक्तव्य भी. और वे खुद तो घिरते ही रहे. यह उनके लिए हमेशा बहुत प्रीतिकर ही रहा है. ठीक यही काम पिकासो ने जीवन भर किया. अराजकता की हद तक किया. यह एक सुनियोजित और पूर्वानुमानोें से परिपूर्ण अराजकता थी, जिसमें ‘सामाजिक-अनुभवों’ के तल में ‘कलानुभव’ को रखकर एक अराजक अर्थ-विस्फोट करना. यह प्रविधि, कृति को समझने की प्रक्रिया को ही काफी हद तक ‘दुरूह’ और ‘दुर्बोध’ बना देती है. नतीजन, पिकासो की कृतियाँ व्याख्याओं से मुँह फेरकर रहने लगीं. कला के अतियथार्थवादी आन्दोलन (सुर्रियललिज्म) के दौर में भी यह खूब हुआ. दुः साध्य और अव्याख्येय रहना ‘महानता’ का पर्याय बन गया. बाद में यही काम अमूर्तन में भी किया जाने लगा.

सल्वाडोर डाली ने इस बौद्विक-युक्ति को ‘यथार्थवादी’ शैली की ‘आकृतिमूलकता’ से नाथकर खूब चौंकाया. इस वजह से उन्हें सुरियलिस्टों द्वारा अपने समूह से निष्कासित कर देना पड़ा. क्योंकि ‘चैंकाना’ कला का अभीष्ट हो गया. इसके चलते ‘आकस्मिक’, ‘अनपेक्षित’ और ‘अप्रत्याशित’ की पूजा होने लगी. आगे चलकर कला के साथ-साथ कलाकार का व्यवहार भी चौंकाने वाला होने लगा. हुसैन भी अपने व्यवहार से चौंकाने की कोशिश में हरदम ही जुटे रहे हैं, जहाँ तक चित्र के कथ्य से चौंकाने की बात है तो, यह वैसा ही है जैसे एक रूसी चित्रकार के चित्र में ईसा मसीह के क्रॉस ढोने में कुली को किराये पर ले लिया. यह एक किस्म की ‘पवित्र में विद्रोह’ की प्रक्रिया है. कभी-कभी यह ‘चेष्टा’ ‘कला’ को अराजकता की उस सीमा के परे घेर देती है, जहाँ से जोखिमें खड़ी होती हैं और विरोध-प्रतिरोध के बवण्डर बलवट खड़े हो जाते हैं, लेकिन कलाकर जोखिम मोल लेने से डरता नहीं और समाज को भी चाहिए कि वह उसे, उस हद तक जाने की ‘स्वतंत्रता’ दे. यदि समाज बरजता है तो भी कलाकार को संभावनाओं का दोहन करने से चूकना नहीं चाहिए. और बेशक फिर उससे उत्पन्न कठिनाइयों का भी सामना करने के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिये.

कहना न होगा कि ज्यादातर तमाम जटिलताओं की शुरुआत वहीं से आरम्भ होती है, जब ‘कला’ में रूप (फार्म) के स्तर पर ‘आधुनिकता’ को ध्यान में रखकर ‘धर्मानुभव’ को ‘कलानुभवों’ में रूपान्तरित करने की चेष्टा की जाती है. याद रखिये इतिहास में चित्र कृतियों को लेकर जितने भी विवाद उठे हैं, वे हमेशा धर्म की रूढ़ सीमाओं को लाँघने की वजह से पैदा हुए हैं.

अब हमें धर्म से जुडे़ उस सर्वज्ञात सत्य को विस्मृत नहीं करना चाहिए कि हमारे समूचे नीतिशास्‍त्र (इथिक्स) का ढांचा, निर्विवाद रूप से धीरे-धीरे धर्म से ही निथर-निथर कर बना है. मसलन, ‘अच्छे-बुरे’, ‘नैतिक-अनैतिक’, यहाँ तक कि ‘सत्यम शिवम् और सुन्दरम्’ तक की अवधारणा हमारे यहाँ ‘धर्मानुभव’ से ही प्रकट होती है- बाद में वे जरूर ‘धर्म’ से अलग होकर एक नये ‘सामाजिक-विवेक’ के रूप में सर्वत्रा स्वीकृत हो गयीं. और ‘धर्मानुभव’ को ‘कलानुभव’ की तरह असावधान तरीके से बरतने में होने वाली ‘चूक’ से ही सांस्कृतिक ठेस जन्म लेती है. क्योंकि, सामाजिक जीवन के नियमन में धर्म की उपस्थिति हमेशा से ही रही है. और कला की दिक्कत यह रही आयी है कि उसका अपना धर्म है, जो उसके भीतर से जन्म लेता है और उसी के अनुपालन को वह अपना अन्तिम उद्देश्य समझती है.

‘पश्चिम’ और भारत को एक-दूसरे के बरअक्स रखकर देखें तो यह बहु स्पष्ट है कि हमारे यहाँ पश्चिम की तरह सौंदर्य के सवालों को ‘नैतिकतावादियों’ या ‘मॉरलिस्टों’ ने समस्या मानकर हल करने की कोशिशें नहीं की हैं, बल्कि इसके ठीक विपरीत सौंदर्यशास्‍त्र के अध्ययन का आधार ही आलंकारिकों (साहित्यालोचकों) के तबके ने ही तय किया, इस कारण हमारे परम्परागत ‘भारतीय चिन्तन’ में कला को जो ‘स्वतंत्रता’ उपलब्ध हुई, वैसी ‘स्वतंत्रता’ पश्चिम के चर्च के सांस्थानिक वर्चस्व के चलते कम ही मिली. कभी-कभी मेैं सोचता हूँ कि यदि ‘स्वतंत्रता’ का ऐसा निर्बंध ‘उपभोग’ भारतीय कला को न मिला होता, तो कालिदास के कुमारसंभव को क्षिप्रा में डुबो दिया गया होता और खजुराहो के मन्दिरों के भग्नावशेष आज इसे खोजे नहीं मिलते. जबकि कालिदास का काव्य-विषय और खजुराहो का स्थापत्य धर्मगत ही था. लेकिन उसको उन्होंने अध्यात्म दर्शन से भी नाथ दिया था. इसलिए उसमें ‘काम’ का प्राधान्य होने के बावजूद वे अपना अस्तित्व बनाये रहे.

बहरहाल पश्चिम में चित्र में ‘प्रकटन’ का क्रूर दमन इसलिए भी आया कि वहाँ सौंदर्य शास्‍त्रीय विचार अंशतः ‘धर्मगत’ और अंशतः ‘कलागत’ रहा आया. बावजूद इसके वहाँ टिशियन की निर्वसनाओं को चर्च की प्रताड़नाएँ झेलना पड़ीं. वे लोगों द्वारा नष्ट तक कर दी गयीं. उनके लिए तब यह ‘पवित्रा में विद्रोह’ था.

अब यदि इस समूचे ‘विचार’ के पाश्र्व में रखकर हम ‘हुसैन-प्रसंग’ को लें, तो इसके पहले कुछ चीजें और स्पष्ट कर ली जायें. सौभाग्यवश मुझे हुसैन साहब से लम्बे साक्षात्कार करने का तीन बार मौका मिला. मुझे याद है, जिसमें उन्होंने इंदौर में बीते अपने जीवनकाल के आरंभिक शिक्षा काल के दो सहपाठी-चित्रकारों का अपनी कला में प्रभाव स्वीकारा कि उन्होंने रेखाओं के सरलीकरण (सिम्पलिफिकेशन ऑफ लाइन्स) में विष्णु चिंचालकर और रंग-संयोजन में डी.जे. जोशी से काफी प्रभाव ग्रहण किया. बाद में पिकासो ने उन्हें गहरे तक प्रभावित किया. लेकिन, उनके पास रंग-रेखाएँ अपने इसी आरंभिक साहचर्य की रहीं.

दरअस्ल, हुसैन के द्वारा बनाये गये सरस्वती और सीता से सम्बन्धित वे विवादित चित्र अपने आप में कोई मुकम्मल चित्र-कृतियाँ नहीं हैं. वे मात्रा उसी आरंभिक दौर में इंदौर के आर्ट स्कूल में सीखे गये (तथा बाद में उसमें अभूतपूर्व दक्षता अर्जित कर ली गयी) आयक्नोग्राफिक, सिम्पलीफिकेशन ऑफ लाइन्स के अभ्यास की ही देन हैं. वे एक चित्रकार द्वारा स्वभावगत उतावली में ‘धर्मानुभव’ को, इतने सरल ‘कलानुभव’ में बदलने की चेष्टा की मात्रा विफलता का प्रमाणीकरण है, जिसमें वे विषय के साथ अपनी तरह के ट्रीटमेंट को लेकर ली गयी ‘अराजक व निर्बाध स्वतंत्रता’ अर्जित किये हुए हैं. जबकि, ‘धर्मानुभव’ की संलिष्टता को ‘आकृतिमूलकता’ में व्यक्त करते समय, ऐसे ‘सरलीकरण’ का उपयोग चित्रकृति को संदिग्ध और संकटग्रस्त बनाता है. बखान के जरिये सृजित ‘अलौकिकता’ को रंग और रेखाओं में ले जाकर ‘लौकिक’ बनाते हुए, एक कलाकार को संभावित खतरों की पुख्ता पहचान और संभावनाओं के सूक्ष्म और सुरक्षित दोहन की जरूरत होती है. फिर हुसैन के पास ‘धर्मानुभव’ के नाम पर भारतीय पुरा कथाओं और मिथकों के ‘सपाट बखान’ से बनी ‘स्मृति’ की बहुत सीमित पूंजी ही रही है, जिसके आधार पर उनके द्वारा किये जाने वाले चित्रांकन में निश्चय ही कुछ ‘घनमथन’ हो सकता था. जबकि, ऐसे कथ्य (कण्टेण्ट) को ‘चित्रभाषा’ में उल्थाने के लिए ‘मूर्त-अमूर्त’ की ‘कलागत युक्ति’ जिसे ‘डायलेक्टिल-डबलिंग’ कहा जाता है, बहुत इमदाद करती है, लेकिन संयोगवश हुसैन ने उस पर जाने का रास्ता इरादतन छोड़ दिया, क्योंकि, यह उनकी ‘चित्रता’ के स्वभाव से बिल्कुल बाहर भी था. खैर.

बहरहाल, ऐसा नहीं हो सकता कि किसी चित्र का विषय द्रोपदी का चीरहरण है, तो वहाँ ‘सेंसुअसनेस की सृष्टि’ की अबाध छूट ले ली जाये. क्योंकि विषय में ही स्‍त्री देह को निर्वस्‍त्र किए जाने का प्रसंग है. या कहें कि ऐसा भी नहीं हो सकता कि यदि स्‍त्री-देहाकृति, विषय में समाहित है तो फिर उसकी ‘चाक्षुष-संभावना’ निथारने की कलागत-युक्ति का आश्रय पकड़ लिया जाये. ऐसी किसी विशेष चतुराई से एक समझदार और कुशल चित्रकार को इरादतन दूरी बनाकर रखनी होगी. यह कला का और कलाकारों के आत्मानुशासन का मसला है.

यह वैसा ही है, जैसा कि एक लिखी जा रही कविता में यदि आगे बढ़ते हुए ‘आकाश’ शब्द हाथ लग गया तो काव्य-स्वभाव के चलते, कवि को संरचना के स्तर पर विस्तार की ‘वैकल्पिकता’ मिल जाती है. मसलन, अब ‘आकाश’ है तो वहाँ उड़ान भरती चिड़िया है, बच्चे की पतंग है, बमवर्षक विमान भी हैं (चाँद तो अब उर्दू कवियों के काव्य-उपभोग के लिए छोड़ दिया गया है) या फिर ‘अनंत में आवागमन’ है. इसके उलट दार्शनिकता में कूच करने के लिए आकाश का अर्थ ‘सब कुछ को अपने में समेटकर भी खाली रह जाना है’, जैसी अमूर्तता से जोड़ना इसकी समझ का होना जरूरी होगा.

बहरहाल हुसैन के लिए सीता के उस तथाकथित विवादित चित्र के ‘आभ्यन्तर’ में, हनुमान की पूँछ, ‘रैखिकता’ की संरचनागत सुविधा थी. उन्‍होंने उसे लम्बी करते हुए, उसके छोर पर ‘सीतांकन’ कर दिया. लेकिन, सीता को हनुमान के कंधे पर बिठाने की भी अपनी कुछ दिक्कतें थीं, मसलन, जब सीता को कंधे पर अलाँग-फलाँग बिठाते, तब वस्त्रारहित जांघों पर थामे रखने के लिए हनुमान के हाथ वहाँ होते और निश्चय ही, तब तो हिन्दुत्व में लंका से भी कहीं बड़ा अग्निकांड हो जाता. तो कुल मिलाकर, कहना यही है कि ये रेखंाकन ‘अलौकिकता’ को ‘लौकिक युक्ति’ से उल्थाने में हुई त्राुटि से ज्यादा वे ‘धर्मानुभव’ को ‘कलानुभव’ में कायान्तरण की विफलता के सहज सुलभ उदाहरण बन गये हैं, जिसमें ‘अबाधित स्वतंत्रता की उपलब्धता ने, कलाकार को ‘अपने सृजन कर्म की अंतर्निहित प्रश्नात्मकता’ पर कतई ध्यान ही नहीं जाने दिया. अर्थात् जब उसके द्वारा ऐसा सारा उलट फेर किया जा रहा है तो क्या कोई किसी तरह का सवाल भी खड़ा हो सकता है? फिर उन दिनों सेक्स को नये ढंग से पारदर्शी बनाने की कोशिश में, ‘तर्कमूलक भाववाद’ का सहारा लेते हुए, एक आधुनिक आचार्य संभोग से समाधि की तरफ ले जाने के अभियान में पहले ही जुटे हुए थे. इसके कारण दैहिकता के गोपन के विरुद्ध सामान्य साहसिकता भी दुस्साहस में बदलने के लिए तैयार हो रही थी.

अतः निश्चय ही ये रेखांकन किसी को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं, सिर्फ ‘स्वतंत्रता का अराजक’ होने की सीमा तक किया गया एक असावधान ‘उपभोग’ भर है. फिर सहज रूप से ही एक सामान्य कला-प्रेक्षक प्रश्न ये भी उठा सकता है क्या पुराकथाओं या मिथकों के पात्रों के चित्रण में ‘आधुनिकता का संस्पर्श’ देने के लिए स्‍त्री देह को वस्त्राहीन बनाना कला की कोई अपरिहार्य रूढ़ि है? क्या उससे देवाकृतियाँ कुछ ‘अतिदेवीय’ हो जाएँगी- या अधिकाधिक ‘मानवीय’? क्या, उसके अभाव में वह ‘कृति’ समकालीन कला मुहावरे के दायरे से बहिष्कृत कर दी जायेगी?
हुसैन प्रसंग : प्रभु जोशी -2

चूँकि, तब उन्हें ‘रचते हुए’ स्वयं हुसैन को भी इस बात का बहुत स्पष्ट विश्वास था कि उनके रचनात्मक प्रयास (क्रिएटिव-अटैम्प्ट) को राममनोहर लोहिया जैसा भारत का प्रखरतम राजनैतिक बुद्धिजीवी या आक्टोविया पाज जैसा विश्वविख्यात मेक्सिकन कवि देखने वाला है. उसे उनका दृष्टि-समर्थन मिलने वाला है. अतः उन्होंने तब ‘सामान्य-कला-रसिक-दृष्टि’ की इरादतन अवहेलना की, जो हमेशा ही उत्कृष्ट कला के लिए नितान्त जरूरी भी होती है, लेकिन विषय से ‘स्वतंत्रता’ लेने के बारे में उन्हें कभी भी सोचने की जरूरत नहीं हुई होगी. क्योंकि हिन्दू-धर्म में, देवी-देवताओं की देहाकृति (एनाॅटाॅमी) का कोई ‘प्रतिमानीकरण’ नहीं है. ‘लोक’ में तो बिना आँख, नाक या हाथ पाँव का सिंदूर से पुता हुआ एक गोल पत्थर भैरव, गणपति या हनुमान भी हो सकता है और आपातमस्त बहुत कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण देवीमूर्ति के समक्ष भी उसकी वही महत्ता एवम् प्रतिष्ठा रहेगी. और कलात्मकता के अभाव के बावजूद उसका देवत्व जरा भी कम नहीं होगा.

वहाँ झींकड़िया पत्थर ‘सीतलामाता’ है. वहाँ ‘कछुआ’, ‘सांप’, ‘सूअर’ जैसे डरावने और घृणा पैदा करने वाले देवता भी हो सकते हैं और ‘कामदेव’ और ‘कृष्ण’ जेसे अत्यन्त सुन्दर भी. वहाँ ‘पवित्रा में विद्रोह’ को वैधता प्राप्त है. पवित्रा ‘पंचकन्याएँ’ कुँआरेपन में गर्भवती हो सकती हैं. यहाँ यमी अपने भाई सूर्यपुत्र यम के समक्ष ‘संसर्ग’ का प्रस्ताव भी रख सकती है अर्थात एकदम से निर्विघ्न स्वतंत्रता. तो ऐसे सारे आख्यान साहित्य या कला के सर्जक को वर्जनाओं के खुलकर किए जा सकने वाले ध्वंस की प्रेरणा के प्रमाण लगते हैं और वह इनको बरतते समय अंशमात्रा भी संशयग्रस्त नहीं रहता.

हुसैन को इनकी मोटी-मोटी जानकारी से लगा कि वहाँ है, एकदम निर्विघ्न स्वतंत्रता. उन्होंने बेधड़क होकर उसका भरपूर उपभोग किया. तब हुसैन को भी कहाँ पता था कि सैकड़ों सालों के इस्लाम के साहचर्य से संगीत, साहित्य और स्थापत्य के क्षेत्र में जो प्रभाव पड़ा, एक दिन उस ‘एकेश्वरवादी’ धर्म के ‘कट्टरपन’ का भी ऐसा और इतना व्यापक प्रभाव पड़ेगा और तैंतीस करोड़ देवताओं की आबादी का पेट पालने वाली संस्कृति में एक चितेरे के कुछ रंगों और कुछ रेखाओं से ऐसा तह-ओ-बाल मच जाएगा. नहीं पता था हुसैन को कि ‘आर्थिक’ उदारताओं के ‘आवागमन’ के साथ ही ‘सांस्कृतिक’ उदारताओं का ‘प्रस्थान’ शुरू हो जाएगा, तब वे उसके विलोपन की आशंकाओं से संचालित होकर प्रस्तावित ‘विषय’ की ‘विजुअल लैंग्विज’ में एक संयमित और संतुलित तोड़फोड़ ही करते.

लेकिन, एक सावधान सर्जक को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये तमाम अन्तविरोधी चीजें, ‘शास्‍त्र’ ‘पुराण’ या ‘मिथक’ से उठकर जब ‘सामाजिक जीवन के अतिपरिचय’ की परिध में प्रवेश करती हैं, तो वे ‘लोक’ के अनुरूप अपनी वैधता और प्रविष्टि प्राप्त करती हैं. अन्यथा वे ‘प्रपंच’ के कारक में बदल जाती हैं. मसलन, सृष्टि के मिथक में उस आद्यदेवी-त्रायी के ब्रह्मा ने सबसे पहले ‘वाणी’ को जन्म दिया, लेकिन उस प्रलयशून्य सन्नाटे में पूरे ब्रह्मांड में, उस ‘वाणी’ को सुनने वाला कोई नहीं था. अतः ‘वाणी’ (सरस्वती) को जन्म देने वाले ब्रह्मा ने ही उसको सुना. उसको स्वयं ग्रहण किया. यह प्रसंग ‘सृष्टिकथा’ में ‘लीलाभाव की रूपकात्मकता’ अर्जित करते हुए ‘पिता द्वारा पुत्री’ का उपभोग या समागम बन जाता है, क्योंकि जिसने उसे उत्पन्न किया, उसी ने उसे भोगा. तो क्या आधुनिक ‘कला बुद्धि’ से ब्रह्मा और सरस्वती को रेखाओं के सरलीकरण के जरिये आधुनिकता का संस्पर्श देने के लिए निर्वस्‍त्र चित्रित करते हुए संभोगरत दिखा दिया जाये? यह मिथक का कैसा ‘कलान्वय’ होगा? यह मोटी कलाबुद्धि की ही संकीर्ण सीमा ही कही जायेगी. इसके लिए तो रंग-रेखाओं का, मूर्त-अमूर्त का, विचक्षण खेल चाहिए. इसे ‘इन्सेस्ट’ की तरह मजा लेते हुए पेंट नहीं किया जा सकता. और ऐसी भोंडी कोशिश को हमारे उतावले ‘बुद्धिकर्मी’ वैध या उचित ठहराने के लिए दुहाई देते हुए कहने लगें कि भाइयो! ‘पिता और पुत्री के बीच सेक्स’ हमारी परम्परा का हिस्सा है और इसके चित्रण को लेकर भृकुटि तानना मूर्खता है. तो ऐसे विवेक और विवेचनाओं (!) को क्या कहा जाये, जो ‘मिथकीय-सत्य’ को इस तरह ‘समकालीन’ (!) बनाने की बात करे. हालाँकि हमारा मानना है कि संसार का कोई भी विषय कला के लिए न तो त्याज्य है, न ही वज्र्य. बावजूद इसके कलाकार को चाहिए कि वह किंचित ठिठककर सोचे कि वह क्या और कैसे करने जा रहा है.

यों तो कला की यह जिद रही आयी है कि वह जहाँ भी ‘जीवन’ और ‘कल्पना’ के लिए अवकाश है, वहाँ वह जायेगी ही. उसका प्रवेश कभी भी वर्जित नहीं हो सकता. कहना न होगा कि राजनीतिक द्वेष से ठसाठस भरी उस ‘कलाविरोधी कुमति’ का ही ऐसा कारोबार है कि वह हुसैन की असावधान रहकर बनाई गई चित्रकृतियों को आसानी से देशव्यापी प्रपंच बनाने में सफल हो गयी.

हम सब यह जानते हैं कि यों तो हुसैन के साथ सदा से देश के शीर्ष बुद्धिजीवियों की एक बड़ी जमात जुड़ी रही है, लेकिन यह हुसैन की दुर्बलता है कि वे रंग और रेखाओं में जिस करामात और कौशल से ‘सम्पन्न’ हैं, अपने कृतित्व को लेकर की जाने वाली बौद्धिक बयानबाजी में उतने ही ‘विपन्न’. इसलिए कभी भी आप उन्हें, अपनी कृतियों की लम्बी चैड़ी दार्शनिकता से भरी हुई व्याख्याएँ करता हुआ शायद ही कहीं बरामद कर पायेें. सिने तारिका माधुरी दीक्षित वाली चित्र-श्रंृखला को याद करें तो हम पायेंगे कि वह पूरी की पूरी श्रृंखला ही स्‍त्री देह को सेंसुअसनेस को ध्यान में रखकर बनाई गयी थी. और माधुरी का अर्थ तो गतिमय देह ही था. फिल्म जगत में दशकों के बाद कोई चपल गति से नृत्य करने वाली अभिनेत्री आगे आयी थी. लेकिन जब पत्रकारों द्वारा एक ग्लैमर गर्ल को लेकर हुसैन जैसे महान चित्रकार द्वारा एक पूरी की पूरी चित्र श्रंृखला तैयार करने के बाबत पूश्न पूछे गये, तो वे मंचीय कवियों के घटिया उक्ति-चातुर्य की तरह ‘माधुरी’ शब्द का संधि-विग्रह करते हुए बताने लगे कि उन्हें माधुरी में ‘माँ’ दिखाई देती है, जो ‘धुरी’ की तरह रही है. अधूरी रही है. मेरे लिए मेरे जीवन में. यह बहुत खोखला और चलताऊ तर्क था. जिसके पीछे कोई दृढ़ चिंतनात्मक आधार नहीं था. जबकि मूल मन्तव्य मात्रा यही था एक चर्चित अभिनेत्री को चित्रित करके चर्चा की नयी सीढ़ी पर चढ़ जाना- वहाँ पूँजी और प्रसिद्धि दोनों एक साथ थीं. वे फिल्मी दुनिया के लिए कला के ग्लैमर ब्‍वॉय बन गये.

जबकि दूसरी तरफ ठीक उसके उलट उनके अन्य ‘समकालीन’ अपने वक्तव्यों और व्याख्यााओं में ‘सारगर्भित लगने वाली वाचालता’ का ऐसा मोहक जाल बुनते हैं, कि उससे वे किसी को भी वशीभूत कर लेते हैं. ‘भाषा से भाषा में पैदा होने वाले अनुभवों’ का आश्रय लेकर चलती उनकी कृतियों की समीक्षाएँ, ‘विवचेना नहीं, विरुदावलियाँ’ हैं, जबकि कैनवास बताता है कि वे तो उनकी असफलता का प्रमाणपत्र हैं. कई बार तो वहाँ उनके कैनवास पर ‘अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा भी सौंदर्य’ नहीं होता. ‘बंद कमरों में बैठकर कैनवास पर पैदा किये गये ‘मटेरियल इफैक्ट’ को ही ‘अद्भुत आविष्कार’ की तरह व्याख्यायित किया जाने लगा, जिसमें चित्र और चित्रकार दोनों ही ‘कन्फ्यूज्ड’ दिखायी देते. ‘एस्थेटिक विजन’ ने ही वहाँ से विदा ले ली. तब, उनकी कृतियों में ‘असुन्दरता’ (अगलीनेस) की कीर्ति गायी जाने लगती है. तब, वे अपनी इमदाद में एडोर्नो को ले आते हैं. एक ने तो बाकायदा कहा भी था कि वे ‘कला से सुन्दरता को खदेड़कर बाहर’ कर देंगे. ‘ओह! इट्स टू प्रेट्टी’ तब यह जुमला किसी की कृति को खारिज करने का धारदार अस्त्रा बनने लगा. मजेदार बात यह है कि ऐसे ही लोग हुसैन को नाॅन आर्टिस्ट कहने लगे. वे कहने लगे, हुसैन आर्टिस्ट नहीं, पर्फामिंग आर्टिस्ट (!) हैं. मुझे याद है, जे स्वामीनाथन के उत्साही अनुयायियों के लिए हुसैन मसखरी का विषय बने हुए थे. कारण यह कि हुसैन का कुछ भी छिपा हुआ नहीं था. कला का कोई सीक्रेट नहीं. सब कुछ साफ-साफ और खुले में. एक जबरदस्त रंग-संयोजन और अद्वितीय रेखांकन. वे हजारों के बीच काम कर सकने वाले कलाकार थे. उनके किए हुए के लिए समीक्षा को शीर्षासन कर के दिखाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. उनके चित्रों के ‘कथ्य’ कभी भी किसी ख्यात समीक्षक की व्याख्याओं के मोहताज नहीं रहे. चित्र का ‘कथ्य’ धड़धड़ाकर खुद ही बाहर आकर झाँकने लगता है.

लेकिन, जब से उनके कुछ चित्र विवादास्पद हुए हैं, स्थिति बदल गयी है. पिछले कुछ समय से मैं लगातार देखता आ रहा हूँ कि बुद्धिजीवियों की एक भरी-पूरी आबादी अपने तईं, तथाकथित अकाट्य (!) तर्कों से लैस होकर, हुसैन के विवादग्रस्त रेखांकनों की रक्षा में अपनी बुद्धि को पसीना-पसीना किये दे रही है. वे अतीत के ‘शमी वृक्ष’ से बंधे, जंग लगे अस्त्रों को उतार कर लाते हैं और ब्रह्मास्त्र की तरह छोड़ देते हैं. रेखांकनों का बचाव करते हुए वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ का उल्लेख तो उनकी टिप्पण्यिों में ऐसे आता है, जैसे तब के समाज में जन-जन के पास ‘कामसूत्र’ आज के मोबाइल की तरह हर-हमेशा साथ रहता था और एस.एम.एस चैक करने की तरह, वे जब-तब उसके पन्ने फड़फड़ाते रहते थे. दिलचस्प बात तो यह है कि वे अपनी ऐसी व्याख्याओं पर बहुत रीझे हुए भी हैं. उनके बचाव में वे यह भी कहते हुए बरबाद होते हैं कि देखा जाये तो हुसैन चित्रकारी करके एक तरह से लगातार इस्लाम विरोधी कर्म ही कर रहे हैं. इस तरह वे गैर-इस्लामिक हैं. वे कुफ्र कर रहे हैं. वाह! क्या बतायें कि यह एक ऐसा कुफ्र है, जो करोड़ों की कमाई कर रहा है.

जबकि हकीकत ये है कि मुस्लिम होते हुए चित्रकारी करने का काम, न तो हुसैन का कोई कुफ्र अथवा ‘शौर्य’ है और न ही इस्लाम की कोई ‘उदारता’. ये निहायत ही बचकाने और बोदे तर्क हैं. आज दुनियाभर में इस्लामिक राष्ट्रों में चित्रकार हैं और इसके अतिरिक्त आज संसार का सर्वोत्कृष्ट यथार्थवादी चित्रकार ईमान मालेकी तेहरान से है.

इसके अतिरिक्त एक बात और वह यह कि वे हुसैन द्वारा हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रांकन का भी हिन्दुओं पर लगभग ‘उपकार’ की तरह उल्लेख करते हैं. मगर-तमाम ऐसे कई निरबंक बचकाने संदर्भ हैं, जिनसे विवादित रेखांकनों के पक्ष में किसी दृढ़ ‘दार्शनिक’ या ‘तात्विक’ समर्थन का कोई मजबूत आधार नहीं बनता. यों भी कलाकार जब अपने चित्र के सृजन के लिए कोई ‘विषय’ चुनता है, तो वह ‘उपकार’ अपनी ‘सृजनात्मकता’ पर ही करता है. ‘विषयः’ उसके रचनात्मक विवेक से जन्मी उसकी अंदरूनी ‘सृजनेच्छा’ की जरूरत बनकर आता है, न कि किसी को ‘उपकृत’ करने की इच्छा से. यदि वैसा है तो वह ‘कृति’ नहीं, ‘कमीशंड’ काम है, जो जीवन के आरंभ में, लगभग हर चित्रकार अपनी जीविका चलाने के लिए ग्राहक की इच्छा के अनुकूल ऐसा करता रहा है. अंग्रेजी हुकूमत ने ऐसे कमीशंड काम करने वाले ढेरों ‘आर्टिस्ट’ एकत्रा कर रखे थे. और आज भी कई बड़े कलाकर यह करते हैं. अभी भी ‘सत्ताएँ’ और नव-धनाढ्य चित्रकारों से ‘कमीशंड’ काम कराते हैं. अतः इन चित्रों का निर्माण कर के हुसैन निश्यच ही कोई उपकार तो नहीं ही कर रहे थे.

लेकिन, बावजूद इस सबके हुसैन अपनी तमाम कमियों और खामियों के निर्विवाद रूप से हमारे समय के महान् चित्रकार हैं, जिसने अपनी गहरी आत्म-सजगता के चलते, कला के प्रचलित और स्थापित ‘प्रतिमानों’ को अराजक होकर तोड़ते हुए, वह सब कुछ एक ऐसी ‘शैलीगत-निजता’ के साथ रचा, जो अद्वितीय है. खासतौर पर उन्होंने चित्र-फलक के ‘आभ्यान्तर के विभाजन’ में, परम्परागत ‘ज्यामितिक-संतुलन’ को एक नितान्त नई प्रविधि से तोड़कर, जो नये ढंग का ‘संयोजन’ गढ़ा, वह ‘समकालीन’ भारतीय कला में उनका अपना ‘संरचनागत’ आविष्कार है और ‘अवदान’ भी है. वे एक अपराजेय योद्धा की तरह कला के महासमर में उम्र के इस पड़ाव पर भी लाम पर हैं. उन्होंने लाखों की तादाद में रेखांकन और चित्रकृतियाँ तैयार की हैं, जिसमें उनकी अद्वितीय मेधा और कड़ी तपस्या के रंग-दग्ध प्रमाण हैं. बहरहाल, यह तो हमारी ही कोई ‘बौद्विक-व्याधि’ है कि अपने महान् के ‘रचे हुए’ से प्रखर असहमति व्यक्त करने को लेकर हरदम हमारे भीतर, अपनी कला सम्बन्धी ‘समझ के कलंकित होने का भय’ समाया रहता है. यह कैसी चतुर्दिक व्याप्त बौद्धिक दैन्यता है कि देश के किसी भी हिस्से के हमारे अच्छे-खासे बुद्धिजीवी और चित्रकार तक की भाषा की एकाएक घिग्घी बंधने लगती है, जब उससे हुसैन के कुछ विवादित चित्रों को लेकर असहमति प्रकट करने के लिए आगे आने को कहा जाता है. उनमें जनतांत्रिक साहस के बजाय एक विचित्र भीरुता भर जाती है. क्या हुसैन से असहमत होना ‘धर्मनिरपेक्षता’ विरोधी होने का लांछन अपने माथे पर ले लेना है? क्या हुसैन की कृतियांे पर असहमति प्रकट करने का अर्थ साम्प्रदायिक कहलवाना है?

मैं पूछना चाहता हूँ कि चित्रकला की दुनिया में भला यह क्यों मानकर चला जाता है एक ‘महान’ जो कुछ रचता है, वह सब कुछ सर्वोत्कृष्ट ही होता है और उसे घटिया कहते हुए निरस्त नहीं किया जा सकता? जहाँ तक ‘बाजार’ का सवाल है, तो वह तो ऐसे विवादों से घिरे चित्रकारों की चित्रकृति ही नहीं, उसके ब्रश का एक-एक बाल तक बेच डालने में माहिर है. लेकिन, कला पारखियों और कला-आलोचकों में यह शक्ति होनी चाहिए कि वे ‘कृति’ को पहचानें और उस कृति के जन्म के ‘पूर्वाभ्यास’ की तरह किये गये काम को छांटकर बाहर कर दें. निरस्त कर दें. वैसे, कला इतिहास बताता है कि हर बडे़ कलाकार में अपन ‘रचे हुए’ को कई दफा बड़ी निर्ममता से रद्द करने का साहस रहता आया है. पिकासो ने स्वयं अपने जीवन के आखिरी वर्षों में एक साक्षाकार में कहा था, कि ‘मैंने अपने जीवन का सवोत्कृष्ट काम तो अपनी उम्र के चैबीस से 34 वर्ष में किया. बाकी मैंने दुनिया को मूर्ख बनाया, क्योंकि दुनिया मूर्ख बनने के लिए तैयार भी थी.’ हो सकता है, कथन में किंचित् अतिरेक हो, लेकिन बर्गसां की तरह यह अपने बौद्धिक अकेलेपन के बीच अपने ही ‘आत्म के नकार’ की ही बात है, क्योंकि खुद को नकारे बगैर अपनी सृजनात्मकता का विकास संभव ही नहीं है. ‘प्रॉसेस ऑव क्रिएशन इज अ प्रॉसेस ऑव कंटीन्यूअस रिजेक्शन टू’ यह सृजन की एक गंभीर शर्त है. यह स्वयं को खारिज करने की निरन्तरता ही है, जो नाथे रखती है, सृजनात्मकता से, सर्जक को.

कुल मिलाकर कहना यह चाहूँगा कि हुसैन को भी चाहिए कि वे खुद आगे रहकर स्वयं के रचे हुए के किसी अंश को नकारते हुए कह दें कि ये ‘जो रेखांकन मैंने बनाये हैं और जो विवादग्रस्त हो गये हैं, वे अपना जीवन जी चुके हैं और मैं उन्हें खारिज करता हूँ.’ और यों भी हकीकत में देखा जाये तो उनमें ‘संरचना’ के स्तर पर ऐसा कुछ भी ‘महान्’ या ‘उत्कृष्ट’ नहीं है, जो हुसैन की ‘रचनात्मक-यात्रा’ को किसी अनछुए शिखर पर ले जाकर स्थापित करते हों. वे अपनी प्रकृति में एक चित्रकार के रोजमर्रा के निहायत ‘सामान्य-कलाभ्यास’ के मामूली उत्पाद हैं और ट्रीटमेंट के स्तर पर असफल. लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि हमारी कला आलोचना के क्षेत्र में जो लोग नियमित काम कर रहे हैं, वे हुसैन ही नहीं, तमाम ‘बड़े’ और ‘बिकने वाले’ कलाकारों के कृपासाध्यों की सूची में हैं या फिर कलादीर्घाओं के ‘अघोषित वेतनभोगी’ या कहें कि ‘पेड-क्रिटिक’ हैं. इसलिए वे अपने ‘आलोचनात्मक विवेक’ से पैदा होने वाली प्रखर असहमति से कभी के हाथ धो चुके हैं. वे केवल या तो ‘स्तुतिगान’ करते हैं या फिर उनके पक्ष में ‘रक्षा-स्त्रोत’ का पाठ करते हैं. उनसे यदि असहमति के लिए कहा जाये, तो वे हकलाने लगते हैं. फिर भला वे हुसैन की किसी कृति की आलोचना कैसे कर सकते हैं? आज स्थिति यह है कि हर वरिष्ठ चित्रकार उन पुरानी कृतियों के लिए प्रामाणिकता का प्रमाणपत्र दने की एवज में पुनः लाखों रुपये माँगता है, जिसकी कीमत वह पहले ही खरीददार से वसूल कर चुका था. और यदि इच्छित राशि नहीं मिले तो वह साफ इनकार कर देता है कि वह कृति उसकी है. वह कह देगा- ये फेक है.

बहरहाल, यहाँ हमें नहीं भूलना चाहिए कि ज्यों-ज्यों हुसैन को लेकर चैतरफा विवाद बढ़ता गया, त्यों-त्यों बाजार में उनकी कृतियों का ‘मूल्य’ ऊँचा उठता गया. ऐसे में विवाद के निपटारे का अर्थ ‘कला-बाजार’ में ‘औकात’ का गिर जाना है. विवाद ‘मूल्यों’ को सींचते हैं. इसलिए कृति को खारिज करने का अर्थ पूँजी के ऊंचे उठते प्रवाह को स्वयं रहकर रोक लेना है. ऐसे में फिर भला कलाकार खुद आगे रहकर यह धतकरम क्यों करेगा?

यहाँ कहना चाहूँगा कि सबसे अधिक चौंकाने तथा बौद्धिक ‘नदीदेपन’ को प्रकट करने वाली बात तो यह है कि हुसैन के इन औसत दर्जे के रेखांकनों की गूढ़-व्याख्या में, उन्हें अप्रतिम सिद्ध करने में, हमारे देश भर के लेखक, बुद्धिजीवी, पत्र-पत्रिकाओं तथा समाचार-पत्रों में चलने वाले अपने स्तंभों में, ‘अल्फाजों के जखीरों’ को खंगाल-खंगालकर लगातार अपरिमित शब्द-निवेश कर रहे हैं, जिसे पढ़कर सोचने पर विवश होना पड़ता है कि हमारी बुद्धिजीवी बिरादरी में व्याप्त यह कैसा ‘अविवेकवाद’ है, जो धमका-धमकाकर निरबंक इकहरे रेखांकनों से, ऐसा अर्थ उगलवाना चाहता है, जो उसमें है ही नहीं. और जब हुसैन कहते हैं कि उनके लिए पेंटिंग बनाना ‘पकौड़े तलने जैसी रोजमर्रा’ की चीज लगता है तो इस कथन के संदर्भ में इन रेखांकनों की ‘कलात्मक-गुणवत्ता’ कैसी होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.

अब दरअसल हुसैन इस समय कला और उम्र की उस जगह पर खड़े हैं, जहाँ से पिकासो की तरह वे एक ईमानदार ‘आत्मस्वीकृति’ में, हकीकत से रौशन, कोई ऐसी बात कह सकते हैं, जिसकी दमक या दीप्ति में एक महान् कलाकार अपनी ‘आत्मा के एकांत’ में बेचैनी में टहलते रहने वाले ‘ईमानदार-संदेह’ को साफ-साफ देख और दिखा सकता है.

लेकिन, यहाँ भी संकट पिकासो की तरह का ही है, जिस काम को आप खारिज करने के लिए आगे बढ़ें, उस पर अब करोड़ों का ‘निवेश’ है. ऐसी घोषणाएँ, उनके अपने ‘कला-बाजार’ में भूचाल पैदा कर दंेगी. वैसे वे किसी भी किस्म के भूचाल से नहीं डरते हैं. उन्होंने देश में जगह-जगह अपने खिलाफ हुए उपद्रवों का सामना साहस के साथ किया और इसी प्रकरण से जुड़े सैकड़ों मुकदमों से वे न्यायालय में भी निपट रहे हैं- दरअस्ल वे डरते हैं तो सिर्फ दुनिया भर की कला को अपने विकराल जबड़ों में फँसाकर, दसों-दिशाआंे में दौड़ती-भागती उस ‘एकाधिकारवादी पूँजी’ में उठने वाले ‘भूचाल’ से, जिससे उनके ‘कला-बाजार’ की निरन्तर ऊपर उठती हुई मीनारें धँसक जाएँगी. हुसैन नंगे पैरों जमीन पर पैदल चलते हुए गाहे-ब-बाहे चाहे बरामद होते रहे हैं, लेकिन हकीकत ये है कि ‘टाइमलेस आर्ट’ के बाद के वर्षों से, वे लगातार ऐसी ही मीनारों की सीढ़ियों पर ही ज्यादा चहलकदमी करते रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं कि ‘कतर’ की ‘नागरिकता’ और वहाँ की मल्लिका-ए-कतर शेखा मोजा द्वारा सौंपा गया काम उन्हें इन्हीं मीनारों की एक बड़ी तादाद से घेर देगा. वैसे भी बड़ी ‘पूँजी’ आपको अपने मुल्क ही नहीं, अप्रत्यक्ष रूप से ‘सम्पूर्ण संसार’ की नागरिकता, ‘अता’ फरमा सकती है. अब कला एक व्यवसाय में बदल गयी है और अब व्यवसाय ही ‘कला का दर्शन’ भी है और ‘दिग्दर्शन’ भी. इसलिए वे कोई वाग्जाल नहीं बुनते. लेकिन यह तय है कि हुसैन ने इस सच्चाई को सबसे पहले और सबसे ज्यादा करीब से जान रखा है. निश्चय ही ‘कतर’ में रहते हुए अब किसी किस्म की ‘कातरता’ उनका पीछा नहीं करेगी.

©साभार - कथादेश

-4, संवाद नगर, नवलखा,

कैदी बाग के पास, इन्दौर-452 001

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