शनिवार, 28 सितंबर 2024

“लोक में दृश्यों का समाजशास्त्र की सामाजिक संवेदना के कुशल चितेरे”

 
“लोक में दृश्यों का समाजशास्त्र की सामाजिक संवेदना
के कुशल चितेरे”

“ मनुष्य के जीवन में कला एवं रंगों का गहरा अंर्तसंबंध रहा है। फ्रांस के सरियलिज्म की शुरुआत लोककला एवं लोकरंग से हुई थी जिसका
तत्कालीन कला पर व्यापक प्रभाव पड़ा। जिसने रंग और कला को समृद्ध किया।
समय के सापेक्ष शब्दों की चित्रकारी में रंग रुह की थिरकन है। जो
बरबस दर्शकों, पाठकों का ध्यान खींचती है। सुख के सारे रिवाजों का दुःख की कतरन से बुना जाना और अनुभवों के पार होकर मनुष्यता की धरती पर फैलाते जाने का अनन्तिम सिलसिला..!!. लोक में इतनी रचनात्मकता होती
हैं कि वह शब्द-यात्रा से प्रारम्भ करती है और फिर समय के चेहरे पर
अनुभूति और संवेदना का संवेग ऐसे फैलाती है कि हश्यों का समाजशास्त्र
यर्थाथ को छूकर बिम्ब रचता जाता है। जो आत्मचिन्तन से भरे लयात्मक दृश्य
उत्पन्न करता है। प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर उसके सम्मोहन में रंगों को
गति देती है। जीवन की तारतम्यता में व मानसिक उहापोहों की मार्मिक
अभिव्यक्ति होती है।
महानगर में कदम-कदम पर संघर्षो के बावजूद वह कहीं पर अपने को
कमजोर नहीं होने देती, क्योंकि वस्तुओं और समय से
टकराये बिना सफलता संभव नहीं है। मन में छोटी-छोटी चाहतों की कोशिश
भरी दुनिया में लगातार अकुलाहटें करवट बदलती रहती हैं। प्रकृति, पर्वत, 
झरना,पेड़-पौधे-सूर्य , सरोवर, जीव-जन्तु, आधी आबादी सभी कुछ गहरी
संवेदना जो शिद्दत से दर्ज है।
समाज मे ंविघटित विभिन्न आयामों पर अपनी कूँची चलाते हुए डा. रत्नाकर
जो आधी आबादी के संज्ञाशीलता पर विपुल पेटिंग बनाई है। नारी गरिमा
और अस्मिता को जो सम्मान उनके चित्रों में व्यापक रूप से परिलक्षित होता है।
कहना न होगा की लोक मे लोकरंगों में दृश्यों का समाजशास्त्र
और आधी आबादी के प्रति संवेदनात्मकता उनके चित्रों में अलग जगह बनाती हैं।
मेरा विश्वास है कि उनकी रचनार्ध्मिता भारत के बहुजनवादी अवधारणा को मजबूत करेगी।

(जनार्दन यादव)