मोहब्बत के रंग शीर्षक से बहुत सारे चित्र आईफेक्स कला दीर्घा में लगाए गए हैं। इन चित्रों के माध्यम से मोहब्बत का पैगाम पहुचाने का उद्देश्य हमारे लोगों को चित्र की भाषा को समझाना भी है।
Kala In Dino
शुक्रवार, 15 नवंबर 2024
शनिवार, 28 सितंबर 2024
“लोक में दृश्यों का समाजशास्त्र की सामाजिक संवेदना के कुशल चितेरे”
“लोक में दृश्यों का समाजशास्त्र की सामाजिक संवेदना
“ मनुष्य के जीवन में कला एवं रंगों का गहरा अंर्तसंबंध रहा है। फ्रांस के सरियलिज्म की शुरुआत लोककला एवं लोकरंग से हुई थी जिसका
तत्कालीन कला पर व्यापक प्रभाव पड़ा। जिसने रंग और कला को समृद्ध किया।
समय के सापेक्ष शब्दों की चित्रकारी में रंग रुह की थिरकन है। जो
बरबस दर्शकों, पाठकों का ध्यान खींचती है। सुख के सारे रिवाजों का दुःख की कतरन से बुना जाना और अनुभवों के पार होकर मनुष्यता की धरती पर फैलाते जाने का अनन्तिम सिलसिला..!!. लोक में इतनी रचनात्मकता होती
हैं कि वह शब्द-यात्रा से प्रारम्भ करती है और फिर समय के चेहरे पर
अनुभूति और संवेदना का संवेग ऐसे फैलाती है कि हश्यों का समाजशास्त्र
यर्थाथ को छूकर बिम्ब रचता जाता है। जो आत्मचिन्तन से भरे लयात्मक दृश्य
उत्पन्न करता है। प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर उसके सम्मोहन में रंगों को
गति देती है। जीवन की तारतम्यता में व मानसिक उहापोहों की मार्मिक
अभिव्यक्ति होती है।
महानगर में कदम-कदम पर संघर्षो के बावजूद वह कहीं पर अपने को
कमजोर नहीं होने देती, क्योंकि वस्तुओं और समय से
टकराये बिना सफलता संभव नहीं है। मन में छोटी-छोटी चाहतों की कोशिश
भरी दुनिया में लगातार अकुलाहटें करवट बदलती रहती हैं। प्रकृति, पर्वत,
झरना,पेड़-पौधे-सूर्य , सरोवर, जीव-जन्तु, आधी आबादी सभी कुछ गहरी
संवेदना जो शिद्दत से दर्ज है।
समाज मे ंविघटित विभिन्न आयामों पर अपनी कूँची चलाते हुए डा. रत्नाकर
जो आधी आबादी के संज्ञाशीलता पर विपुल पेटिंग बनाई है। नारी गरिमा
और अस्मिता को जो सम्मान उनके चित्रों में व्यापक रूप से परिलक्षित होता है।
कहना न होगा की लोक मे लोकरंगों में दृश्यों का समाजशास्त्र
और आधी आबादी के प्रति संवेदनात्मकता उनके चित्रों में अलग जगह बनाती हैं।
मेरा विश्वास है कि उनकी रचनार्ध्मिता भारत के बहुजनवादी अवधारणा को मजबूत करेगी।
(जनार्दन यादव)
गुरुवार, 22 मार्च 2018
रविवार, 26 जनवरी 2014
शुक्रवार, 21 जून 2013
अभिव्यक्ति
अभी एक साक्षात्कार में
जो देखा वह कुछ इस तरह है
एक कैंडिडेट जिसे सबसे पहले बुलाया गया
उसके हाथ में एक खुबसूरत सी फ़ाइल है
जिस फ़ाइल में उसने 'अखबारों' की
कतरनें इकट्ठा की हुयी हैं
इनमे उसका अपना कुछ नहीं है,
इसमें हैं रजा, सुजा, हुसेन और कई नामी
कलाकारों के नाम और उनके काम
इससे तुम्हारी कला का आभास कैसे हो
मेरा तो यही शौक है !
जो देखा वह कुछ इस तरह है
एक कैंडिडेट जिसे सबसे पहले बुलाया गया
उसके हाथ में एक खुबसूरत सी फ़ाइल है
जिस फ़ाइल में उसने 'अखबारों' की
कतरनें इकट्ठा की हुयी हैं
इनमे उसका अपना कुछ नहीं है,
इसमें हैं रजा, सुजा, हुसेन और कई नामी
कलाकारों के नाम और उनके काम
इससे तुम्हारी कला का आभास कैसे हो
मेरा तो यही शौक है !
गुरुवार, 25 अप्रैल 2013
जब मैं छोटा था,
उदय वीर सिंह यादव
जयपुर, राजस्थान
जब मैं छोटा था,
शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता,
... क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...!!
जब मैं छोटा था, शायद शामें बहुत
लम्बी हुआ करती थीं.. मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस", वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है.
अब शायद वक्त सिमट रहा है..!!
जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना, वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं "Hi" हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, जन्मदिन, नए साल पर बस SMS आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..!!
जब मैं छोटा था,तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग, पोषम पा, कट केक,
टिप्पी टीपी टाप. अब internet, office,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है...!!
जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो उस कबरिस्तान के बाहर बोर्ड पर लिखा था ...
"मंजिल तो यही थी,बस जिंदगी गुज़र
गयी मेरी यहाँ आते आते"
ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं..
कुछ रफ़्तार धीमी करो, मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो खूब जियो मेरे दोस्त...!!
जयपुर, राजस्थान
जब मैं छोटा था,
शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता,
... क्या क्या नहीं था वहां,
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियो पार्लर" हैं,
फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...!!
जब मैं छोटा था, शायद शामें बहुत
लम्बी हुआ करती थीं.. मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,
वो लम्बी "साइकिल रेस", वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है.
अब शायद वक्त सिमट रहा है..!!
जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना, वो साथ रोना...
अब भी मेरे कई दोस्त हैं, पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी "traffic signal" पे मिलते हैं "Hi" हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दीवाली, जन्मदिन, नए साल पर बस SMS आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..!!
जब मैं छोटा था,तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग, पोषम पा, कट केक,
टिप्पी टीपी टाप. अब internet, office,
से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है...!!
जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है..
जो उस कबरिस्तान के बाहर बोर्ड पर लिखा था ...
"मंजिल तो यही थी,बस जिंदगी गुज़र
गयी मेरी यहाँ आते आते"
ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है...
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है..
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं..
कुछ रफ़्तार धीमी करो, मेरे दोस्त,
और इस ज़िंदगी को जियो खूब जियो मेरे दोस्त...!!
गुरुवार, 17 नवंबर 2011
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